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10 प्रतिनिधि कहानियाँ (रबीन्द्रनाथ ठाकुर)

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3370
आईएसबीएन :81-7016-791-4

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रवीन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा चुनी हुई दस सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ...

10 Pratinidhi Kahaniyan - Hindi stories by Rabindranath Thakur - 10 प्रतिनिधि कहानियाँ - रवीन्द्रनाथ ठाकुर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ किताबघर प्रकाशन की महत्त्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिन्दी कथा-जगत के सभी शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस सीरीज़ में सम्मलित दिवगंत कथाकारों की कहानियों के लिए उनके प्रतिनिधि एवं अधिकारी विद्वानों तथा मर्मज्ञों को आमंत्रित किया गया है। यह हर्ष का विषय है कि उन्होंने अपने प्रिय कथाकार की दस प्रतिनिधि कहानियों को चुनने का दायित्व गंभीरता से निबाहा है।
किताबघर प्रकाशन गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए अग्रज कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ के अत्यंत महत्त्वपूर्ण कथाकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रस्तुत में राजेन्द्र उपाध्याय ने जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैः ‘अनाधिकार प्रवेश’, ‘मास्टर साहब’, ‘पोस्टमास्टर’, ‘जीवित और मृत’, ‘काबुलीवाला’, आधी रात में’, ‘क्षुधित पाषाण’, ‘अतिथि’, ‘दुराशा’ तथा ‘तोता-कहानी’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात लेखक रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।

रवीन्द्रनाथ की कहानियाँ


रवीन्द्रनाथ ठाकुर उन साहित्य-स्रष्टाओं में हैं जिन्हें भाषा स्थान, काल की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। केवल रचनाओं की संख्या की दृष्टि से देखें तो भी कम ही लेखक उनकी बराबरी कर सकते हैं। उन्होंने एक हजार से भी अधिक कविताओं तथा दो हजार से भी अधिक गीतों की रचना की है। इसके अलावा कहानियाँ, उपन्यास, नाटक तथा धर्म, शिक्षा, राजनीति और साहित्य पर कई निबंध लिखे। उनका बाल-साहित्य भी उच्चकोटि का है। इसके अतिरिक्त वे एक संगीतकार, अभिनेता, गायक और जादूगर भी थे। आज भी बंगाल में उनके गीत-संगीत के बगैर कोई समारोह शुरू नहीं होता। उनके लिखे गीत दो देशों के राष्ट्रगान हैं-एक भारत और दूसरा बँगलादेश है। उनकी कीर्ति अक्षय कीर्ति है।
वैसे तो विश्व-भर में रवीन्द्रनाथ एक ‘विश्व-कवि’ के रूप में ही समादृत हैं, लेकिन रचना के प्रत्येक क्षेत्र में और सर्जना के हर प्रस्थान पर वे अपनी कृतियों से न केवल परवर्ती पीढ़ी के लिए बल्कि अपने समकालीनों के लिए भी शिखर व्यक्तित्व और प्रेरक स्तंभ बन गए थे।

बाँग्ला कथा-साहित्य को ही नहीं, भारतीय कथा-साहित्य को रवीन्द्रनाथ ने गहरे तक प्रभावित किया है। अपनी आरंभिक कथाकृतियों-छोटी गल्प (1892-94) और ‘गल्पदशक’ (1895) से लेकर ‘गल्पगुच्छ की कहानियों तथा अंतिम कहानी लेबोरेटरी’ (1941-इसके बाद तो उनका देहांत ही हो गया) तक लगभग पचास-साठ वर्षों तक फैली रचनावधि में उन्होंने प्रतिदिन गीत लिखने के बावजूद चौरासी छोटी-बड़ी कहानियाँ लिखीं। यहाँ उनमें से चुनकर दस प्रतिनिधि कहानियाँ दी जा रही हैं जो जीवन के मार्मिक अनुभवों, सच्चाइयों, नए पहलुओं, सरोकारों तथा परिवेश के प्रति गहरी चिंताओं और मनुष्य मात्र की पीड़ाओं से हमारा संवेदनशील साक्षात्कार कराती हैं। न केवल इनका कथानक ही मार्मिक है, बल्कि इनका कथा-कौशल, न्यास, शिल्प और शब्द-चयन भी हमें बाँध लेता है। अपनी औपचारिक समाप्ति के बाद भी ये कहानियां हमारे मन में एक अजीब सा कौतूहल और जिज्ञासा का भाव जगाने लगती हैं और इस बात का अहसास कराती हैं कि कहानी भले ही खत्म हो जाए, उसका वक्तव्य या अनुरोध हमारे भीतर देर तक बजता रहता है। इतने वर्षों के बाद भी हर नए पाठक के साथ ये कहानियाँ अपना पुनराविष्कार करती हैं। रवीन्द्रनाथ की कहानियाँ एक समय के सोने के जादुई बंगाल-ग्रामीण बंगाल को हमारे सामने साकार कर देती हैं। अपने समय के आदर्शवादी नायकों को प्रस्तुत करके वे मानो हमें प्रेम का, आदर्श का, बलिदान का, उत्सर्ग का नया पाठ पढ़ाते हैं।

अपनी कहानियों में रवीन्द्रनाथ अनुपम हैं। बंगाल में कहानी के क्षेत्र में उनसे पहले कोई नहीं हुआ और बाद भी उनके जैसी अनुभूति विरल है। उनके जैसी सजीव कल्पना और विशाल मानवता दुर्लभ है।
‘गल्पगुच्छ’ की तीन जिल्दों में उनकी सारी चौरासी कहानियाँ संगृहीत हैं, जिनमें से केवल दस प्रतिनिधि कहानियाँ चुनना टेढ़ी खीर है। 1891 से 1895 के बीच का पाँच वर्षों का समय रवीन्द्रनाथ की साधना का महान काल था। वे अपनी कहानियाँ ‘सबुज पत्र’ (हरे पत्ते) में छपाते थे। आज भी पाठकों को उनकी कहानियों में ‘हरे पत्ते’ और ‘हरे गाछ’ मिल सकते हैं। उनकी कहानियों में सूर्य, वर्षा, नदियाँ और नदी किनारे के सरकंडे, वर्षा ऋतु का आकाश, छायादार गाँव, वर्षा से भरे अनाज के प्रसन्न खेत मिलते हैं। उनके साधारण लोग कहानी खत्म होते-होते असाधारण मनुष्यों में बदल जाते हैं। महानता की पराकाष्ठा छू आते हैं। उनकी मूक पीड़ा की करुणा हमारे हृदय को अभिभूत कर लेती है।

उनकी कहानी ‘पोस्टमास्टर’ इस बात का सजीव उदाहरण है कि एक सच्चा कलाकार साधारण उपकरणों से कैसी अद्भुत सृष्टि कर सकता है। कहानी में केवल दो सजीव साधारण-से पात्र हैं। बहुत कम घटनाओं से भी वे अपनी कहानी का महल खड़ा कर देते हैं। एक छोटी लड़की कैसे बड़े-बड़े इंसानों को अपने स्नेह-पाश में बाँध देती हैं ‘काबुलीवाला’ भी इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। रवीन्द्रनाथ ने पहली बार अपनी कहानियों में साधारण की महिमा का बखान किया। रवीन्द्रनाथ की कहानियों में अपढ़ ‘काबुलीवाला’ और सुसंस्कृत बंगाली भूत भावनाओं में एक समान हैं। उनकी ‘काबुलीवाला’, ‘मास्टर साहब’ और ‘पोस्टमास्टर’ कहानियाँ आज भी लोकप्रिय कहानियाँ हैं-लोकप्रिय और सर्वश्रेष्ठ भी और बनी रहेंगी। उनकी कहानियाँ सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी लोकप्रिय हैं और लोकप्रिय होते हुए भी सर्वश्रेष्ठ हैं।
अपनी कल्पना के पात्रों के साथ रवीन्द्रनाथ की अद्भुत सहानुभूतिपूर्ण एकात्मकता और उसके चित्रण का अतीव सौंदर्य उनकी कहानी को सर्वश्रेष्ठ बना देते हैं जिसे पढ़कर द्रवित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। उनकी कहानियाँ फौलाद को मोम बनाने की क्षमता रखती हैं।

‘अतिथि’ का तारापद रवीन्द्रनाथ की अविस्मरणीय सृष्टियों में है। इसका नायक कहीं बँधकर नहीं रह पाता। आजीवन ‘अतिथि’ ही रहता है। ‘क्षुधित पाषाण’, ‘आधी रात में’ (निशीथे) तथा ‘मास्टर साहब’ प्रस्तुत संग्रह की इन तीन कहानियों में दैवी तत्त्व का स्पर्श मिलता है। इनमें पहली ‘क्षुधित पाषाण’ में कलाकार की कल्पना अपने सुंदरतम रूप में व्यक्त हुई है। यहाँ अतीत वर्तमान के साथ वार्तालाप करता है-रंगीन प्रभामय अतीत के साथ नीरस वर्तमान।
समाज में महिलाओं का स्थान तथा नारी जीवन की विशेषताएँ उनके लिए गंभीर चिंता के विषय थे और इस विषय में भी उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया है।

रवीन्द्रनाथ की कहानियों की संपूर्ण समीक्षा के लिए विस्तृत स्थान की आवश्यकता है। उनकी कहानियाँ अपने आपमें इतनी संपूर्ण हैं कि हर कहानी पर एक ग्रंथ लिखा जा सकता है। उनकी कहानियों के इस अत्यंत अपूर्ण परिचय को यहीं समाप्त करना होगा, क्योंकि रवीन्द्रनाथ की हर ‘कहानी’ अपनी ‘कहानी’ खुद कहती है। वह अपने विषय में अपने पाठकों को बताती चलती है। हर पाठक उनकी कहानियों का अपने हिसाब से मतलब निकाल सकता है। कोई भी समीक्षक उनका अर्थ नहीं बता सकता। पाठक के उत्सुक मन की गहराई में साहित्य का आवेदन छिपा रहता है। रवीन्द्रनाथ ने अपनी एक कविता में कहा है-‘गान अकेले गायक का नहीं, जो सुनता है उसका भी है ! सार्थक गान को जगाने के लिए गायक और श्रोता-दोनों का मिलन अनिवार्य है।’ इसीलिए रवीन्द्र की कहानियों की व्याख्या या विश्लेषण करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हिंदी के आम पाठकों के लिए रवीन्द्रनाथ की कहानियों के कुछ प्रमुख बिंदु यहाँ उठाए गए हैं। आशा ही नहीं, पक्का विश्वास है कि इन कहानियों से भी-जो संख्या में थोड़ी हैं-हिंदी पाठकों को उस अद्भुत कथाशिल्पी के अमर सौंदर्य का कुछ भान मिल सकेगा, क्योंकि मानव-स्वभाव भाषा और प्रांतों की विभिन्नताओं के बावजूद लगभग एक है। मनुष्य-मनुष्य के रिश्ते स्नेह की, प्रेम की, दया-माया-ममता की डोर से बँधे हैं। बंगभूमि के पुत्र-पुत्री हमारे अपने हमें लग सकते हैं। इसी भाव के साथ पाठक इनका रसास्वादन करेंगे-ऐसी आशा है।
रवीन्द्र-जयंती, 2006
62 व, लॉ एपार्टमेंट
ए.जी.सी.आर. इंकलेव, नई दिल्ली-110092

-राजेन्द्र उपाध्याय

अनधिकार प्रवेश


एक दिन प्रात:काल की बात है कि दो बालक राह किनारे खड़े तर्क कर रहे थे। एक बालक ने दूसरे बालक से विषम साहस के एक काम के बारे में बाजी बदी थी। विवाद का विषय यह था कि ठाकुरबाड़ी के माधवी-लता-कुंज से फूल तोड़ लाना संभव है कि नहीं। एक बालक ने कहा कि ‘मैं तो जरूर ला सकता हूँ’ और दूसरे बालक का कहना था कि तुम हरगिज नहीं ला सकते।
सुनने में तो यह काम बड़ा ही सहज-सरल जान पड़ता है। फिर क्या बात थी कि करने में यह काम उतना सरल नहीं था ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आवश्यक है कि इससे संबंधित वृत्तांत का विवरण कुछ और विस्तार के साथ प्रस्तुत किया जाए।
मंदिर राधानाथ जी का था और उसकी अधिकारिणी स्वर्गीय माधवचंद्र तर्कवाचस्पति की विधवा पत्नी जयकाली देवी थीं।
जयकाली का आकार दीर्घ, शरीर दृढ़, नासिका तीक्ष्ण और बुद्धि प्रखर थी। इनके पतिदेव के जीवनकाल में एक बार परिस्थिति ऐसी हो गई थी कि इस देवोत्तर संपत्ति के नष्ट हो जाने की आशंका उत्पन्न हो गई थी। उस समय जयकाली ने सारा बाकी-बकाया देना अदा करके, हद-चौहद्दी पक्की करके और लंबे अरसे से बेदखल जायदाद को दखल-कब्जे में ला करके सारा मामला साफ-सूफ कर दिया था। किसी की यह मजाल नहीं थी कि जयकाली को उनके प्राप्य धन की एक कानी कौड़ी से भी वंचित कर सके।

स्त्री होने पर भी उनकी प्रकृति में पौरुष का अंश इतने प्रचुर परिमाण में था कि उनका यथार्थ संगी कोई भी नहीं हो सका था। स्त्रियाँ उनसे भय खाती थीं। परनिंदा, ओछी बात, रोना-धोना या नाक बजाना उन्हें तनिक भी सहन नहीं होता था। पुरुष भी उनसे डरे-डरे रहते थे। कारण यह था कि चंडी-मंडप की बैठक-बाजी में ग्रामवासी भद्र-पुरुषों का जो अगाध आलस्य व्यक्त होता था, उसे वह एक प्रकार के नीरव घृणापूर्ण तीक्ष्ण कटाक्ष से कुछ इतना धिक्कार सकती थीं कि उनकी धिक्कार आलसियों की स्थूल जड़ता को भेदकर सीधे अंतर में उतर पड़ता था।
प्रबल घृणा करने एवं उस घृणा को प्रबलतापूर्वक प्रगट करने की असाधारण क्षमता इस प्रौढ़ा विधवा में थी। विचार-निर्णय से जिसे अपराधी मान लेतीं, उसे वाणी और मौन से, भाव और भंगिमा से बिलकुल ही जलाकर भस्म कर डालना ही उनका स्वभाव था।

उनके हाथ गाँव के समस्त हर्ष-विषाद में, आपद-संपद में और क्रिया-कर्म में निरलस रूप से व्यस्त रहते थे। हर कहीं अतिसहज भाव से और अनायास ही अपने लिए गौरव का स्थान अधिकार कर लिया करती थीं। जहाँ कहीं भी वह उपस्थित होतीं वहाँ उनके अपने अथवा किसी अन्य उपस्थित व्यक्ति के मन में इस संबंध में रत्ती-भर भी संदेह नहीं रहता था कि सबके प्रधान के पद पर तो वही हैं।
रोगी की सेवा में वह सिद्धहस्त थीं, पर रोगी उनसे इतना भय खाता कि कोई यम से भी क्या डरेगा ! पथ्य या नियम का लेशमात्र भी उल्लंघन होने पर उनका क्रोधानल रोगी को रोग के ताप की अपेक्षा कहीं अधिक उत्तप्त कर डालता था।
यह दीर्घाकृति कठिन-स्वभाव विधवा गाँव के मस्तक पर विधाता के कठोर नियम-दंड की भाँति सदा उद्यत रहती थीं। किसी को भी यह साहस नहीं हो सकता था कि वह उन्हें प्यार करे अथवा उनकी अवहेलना करे।

विधवा निस्संतान थीं। उनके घर में उनके दो मातृ-पितृहीन भतीजे पाले-पोसे जा रहे थे। यह तो कोई नहीं कह सकता था कि पुरुष अभिभावक के अभाव में इन बालकों पर किसी प्रकार का शासन नहीं था अथवा स्नेहांध फूफी-माँ के लाड़-दुलार के कारण वे बिगड़े जा रहे थे। बड़ा भतीजा अठारह वर्ष का हो गया था। अब तक उसके विवाह के प्रस्ताव भी आने लगे थे। परिणय बंधन के संबंध में उस बालक का अपना चित्त भी कोई उदासीन नहीं था। परंतु फूफी-माँ ने उसकी इस सुख-वासना को एक दिन के लिए भी कोई प्रश्रय नहीं दिया। वह कठिन हृदयतापूर्वक कहती कि नलिन पहले उपार्जन करना आरंभ कर ले तो पीछे घर में बहू लाएगा। फूफी-माँ के मुख से निकले इस कठोर वाक्य से पड़ोसिनों के हृदय विदीर्ण हो जाते।
ठाकुरबाड़ी जयकाली का सबसे अधिक प्यारा धन था। उसके लिए उनके यत्नों का कोई अंत न था। ठाकुरजी के सेवन, मज्जन, अशन-वसन-शयन आदि में तिल-भर त्रुटि भी कदापि नहीं हो सकती थी। पूजा-कार्य में नियुक्त दोनों ब्राह्मण देवता की अपेक्षा इस एक मानवी ठकुरानी से कहीं अधिक भयभीत रहते थे। पहले एक समय ऐसा भी था कि देवता के नाम पर उत्सर्ग किया हुआ पूरा नैवेद्य देवता को मिल नहीं पाता था। परंतु जयकाली के शासनकाल में पुजापे के शत-प्रतिशत अंश ठाकुरजी के भोग में ही लगते थे।

विधवा के यत्न से ठाकुरबाड़ी का प्रांगण स्वच्छता के मारे चमचमाता रहता था। कहीं एक तिनका तक भी पड़ा नहीं पाया जा सकता था। एक पार्श्व में मंच का अवलंबन करके माधवी-लता का वितान फैला था। उसके किसी शुष्क पत्र के झरते ही जयकाली उसे उठाकर बाहर डाल आती थीं। ठाकुरबाड़ी की परंपरागत परिपाटी से परखी जाने वाली परिच्छन्नता एवं पवित्रता में रंच मात्र का व्याघात भी विधवा के लिए नितांत असहनीय था। पहले तो टोले के लड़के लुका-छिपी खेलने के उपलक्ष्य में इस प्रांगण में प्रवेश करके इसके किसी प्रांतभाग में आश्रय ग्रहण किया करते थे और कभी-कभी टोले की बकरियों के पठरू भी पैठकर माधवी लता के वल्कलांश का थोड़ा-बहुत भक्षण कर जाया करते थे। परंतु जयकाली के काल में न तो लड़कों को वह सुयोग मिल पाता और न छागल-शिशुओं को ही। पर्व-दिवसों के अतिरिक्त कभी भी बालकों को मंदिर के प्रांगण में प्रवेश का अवसर नहीं मिल पाता था और छागल-शिशु भी दंड-प्रहार का आघात मात्र खाकर सिंहद्वार के पास से ही तीव्र स्वरों में अपनी अजा-जननी का आह्वान करते हुए लौट जाने को विवश हो जाते थे।

परम आत्मीय व्यक्ति भी यदि अनाचारी हो तो देवालय के प्रांगण में प्रवेश करने के अधिकार से सर्वथा वंचित रहना पड़ता था। जयकाली के एक बावरची-कर-पक्क-कुक्कुट-मांस-लोलुप-भगिनी-पति महोदय आत्मीय संदर्शन के उपलक्ष्य में ग्राम में उपस्थित होकर मंदिर के प्रांगण में प्रवेश का उपक्रम कर रहे थे कि जयकाली ने शीघ्रतापूर्वक तीव्र आपत्ति प्रकट की थी, जिसके कारण उनके लिए अपनी सहोदरा भगिनी तक से संबंध-विच्छेद की संभावना उपस्थित हो गई थी। इस देवालय के संबंध में विधवा को इतनी अतिरिक्त एवं अनावश्यक सतर्कता थी कि सर्वसाधारण के निकट तो वह बहुत-कुछ आडंबर सी प्रतीत होती थी।

अन्यत्र तो जयकाली सर्वत्र ही कठिन-कठोर थीं, उन्नत मस्तक थीं, स्वतंत्र निर्बंध थीं। परंतु केवल इस मंदिर के सम्मुख उन्होंने संपूर्ण रूप से आत्मसमर्पण कर दिया था। मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह के प्रति वह एकांत भाव से जननी, पत्नी, दासी आदि सब-कुछ थीं। उसके संबंध में वे सदैव सतर्क, सुकोमल, सुंदर एवं संपूर्णत : अवनम्र थीं। प्रस्तर-निर्मित यह मंदिर तथा इसमें प्रतिष्ठित प्रस्तर-प्रतिमा ये दो वस्तुएँ ही ऐसी थीं, जो उनके निगूढ़ नारी-स्वाभाव की एकमात्र चरितार्थक के विषय थीं। यही दो वस्तुएँ उनके स्वामी और पुत्र के स्थान पर थीं। यही दो उनका समस्त थीं। इसी से पाठक समझ लेंगे कि जिस बालक ने मंदिर-प्रांगण से माधवी-मंजरी का आहरण करने की प्रतिज्ञा की थी, उसका साहस भी असीम रहा होगा। वह बालक और कोई नहीं, जयकाली का भ्रातुष्पुत्र नलिन था। वह अपनी फूफी-माँ को बड़ी भली तरह जानता था, तथापि उसकी दुर्दांत प्रकृति किसी प्रकार के भी शासन के वशवर्ती नहीं होती थी। जहाँ कहीं भी विपद की संभावना होती, वहाँ उसे एक विचित्र आकर्षण महसूस होता और जहाँ कहीं भी शासन या प्रतिबंध होता, वहाँ उल्लंघन करने के लिए उसका चित्त चंचल हो उठता। अनुश्रुति है कि अपने बाल्यकाल में उसकी फूफी-माँ का स्वभाव भी ठीक ऐसा ही था।
उस समय जयकाली मातृ-स्नेह मिश्रित भक्तिपूर्वक ठाकुरजी पर अपनी दृष्टि निबद्ध किए दालान में बैठी अनन्य-अभिनिविष्ट मन से माला जप रही थीं।

बालक पीछे से अशब्द-पदसंचारपूर्वक आकर माधवी-लता वितान तले खड़ा हो गया। उसने देखा कि निम्नतर शाखाओं के फूल तो पूजा के निमित्त तोड़े जाकर नि:शेष हो चुके थे। गत्यंतर न देख उसने अत्यंत धीरे-धीरे और बहुत ही सावधानीपूर्वक लता मंच पर आरोहण किया। उच्चतर प्रशाखाओं पर विकचोन्मुख कलिकाएँ देखकर उन्हें तोड़ने के लिए ज्यों ही उसने अपने शरीर एवं बाहु को प्रसारित किया, त्योंही उस प्रबल प्रयास के भार से माधवी-लता का जीर्ण मंच चरम शब्दपूर्वक टूट पड़ा। मंचाश्रित लता एवं बालक दोनों एकत्र ही भूमिसात् हुए।
जयकाली हड़बड़ाकर दौड़ी आईं। उन्होंने अपने भ्रातुष्पुत्र की कीर्ति का अवलोकन किया। बलपूर्वक उसकी भुजा पकड़ के उसे मिट्टी से उठाया। आघात तो उसे यथेष्ठ लगा था, किंतु उस आघात को दंड नहीं माना जा सकता था, क्योंकि वह तो ज्ञान-संज्ञाहीन जड़ का आघात था। अतएव मंचपतित बालक की व्यथित देह पर जयकाली का ज्ञान संज्ञायुक्त शासन-दंड मुहुर्मुह: बलपूर्वक वर्षित होने लगा। बालक ने बिंदु-मात्र भी अश्रुपात किए बिना ही उनके दंड को नीरवतापूर्वक सहन किया। इस पर उसकी फूफी माँ ने उसे घसीटकर घर में अवरुद्ध कर दिया। उसके उस दिन के सांयकालिक आहार का निषेध कर दिया गया।

आहार-निषेध का समाचार सुनकर दासी मोक्षदा ने कातर कंठ एवं जल-छलछल नेत्र से बालक को क्षमादान करने का अनुरोध किया। परंतु जयकाली का हृदय विगलित नहीं हुआ। उस घर में ऐसा दु:साहसी व्यक्ति कोई नहीं था, जो ठकुरानी को सूचना-वंचित रखकर गुप्त रूप से उस क्षुधित बालक के लिए खाद्य की व्यवस्था कर देता।
विधवा माधवी-मंच के पुन: संस्कार के लिए श्रमिक बुलाने का आदेश देकर पुनर्वार माला लेकर दालान में आ बैठीं। कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात् मोक्षदा अत्यंत भयभीत भाव से उनके निकट गई और बोली, ‘‘ठकुरानी माँ, छोटे बाबू भूख के मारे बिलख रहे हैं, उन्हें थोड़ा-सा दूध ला दूँ ?’’
जयकाली ने अविचलित मुख-मुद्रा से कहा, ‘‘नहीं !’’
मोक्षदा लौट गई। अदूरवर्ती कुटीर-गृह से नलिन का करुण क्रंदन क्रम-क्रम से बढ़ता हुआ क्रोध के गर्जन के रूप में परिणत हो उठा-पर गर्जन-पर्व भी समाप्त हुआ और अंत में, बहुत देर के पश्चात् उसकी कातरता का परिश्रांत उच्छवास रह-रहकर जप-निरता फूफी माँ के कर्ण-कुहरों में पहुँच-पहुँचकर ध्वनित होने लगा।

नलिन का आर्त्त कंठ परिश्रांत एवं मौनप्राय हो चला था कि किसी और निकटवर्ती जीव की भीत एवं कातर ध्वनि कर्ण-गोचर होने लगी तथा उसके संग-संग ही धावमान मनुष्यों का दूरवर्ती चीत्कार शब्द उसके साथ मिश्रित होकर मंदिर के सम्मुखवर्ती मार्ग पर एक कोलाहल के रूप में उत्थित हो उठा।
सहसा मंदिर-प्रांगण में कोई पद-शब्द सुनाई पड़ा। पीछे मुड़कर जयकाली ने देखा कि भूपर्यस्त माधवी-लता आंदोलित हो रही है।
रोषपूर्ण कंठ से पुकारा, ‘‘नलिन !’’
कोई उत्तर नहीं मिला। जयकाली ने समझा कि दुर्दम नलिन किसी उपाय से बंदीशाला से पलायन करके मुझे चिढ़ाने आया है।
यही सोचकर वह अत्यंत कठिन मुद्रा बनाकर एवं अधर के ऊपर ओष्ठ को अत्यंत कठिन रूप से दाबकर प्रांगण में उतर आई।
लता-कुंज के निकट आकर पुनर्वार पुकारा, ‘‘नलिन !’’

उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। उन्होंने माधवी की शाखा को उठाकर देखा कि एक अत्यंत ही मलिन-शूकर ने प्राण-भय से भीत होकर घन-पल्लव के अंतराल में आश्रय लिया है।
जो लता वितान इष्टक-निर्मित प्राचीर से परिवेष्ठित उस प्रांगण में वृदा-विपिन का संक्षिप्त प्रतिरूप हो, जिसकी विकसित कुसुम-मंजरी का सौरभ गोपिता-वंद के सुरभित नि:श्वास का स्मरण कराता रहता हो एवं कालिंदी-तीरवर्ती सुख-विहार के सौंदर्य-स्वप्न को जाग्रत करता रहता हो, विधवा जयकाली की उस प्राणाधिक यत्नों से लालित सुपवित्र नंदन-भूमि में अकस्मात् यह कैसा वीभत्स कांड घटित हो गया।

पुजारी ब्राह्मण लाठी लेकर उस मल-मलिन पशु को भगाने दौड़ा। जयकाली तत्क्षण नीचे उतर आई, पुजारी के शूकर-ताड़ का कर्म का निषेध किया एवं भीतर से मंदिर प्रांगण का द्वार अवरुद्ध कर दिया।

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